Thursday 15 September 2011

अहसास


पल-पल तेरा अहसास
मरुस्थल की मरीचिका सा
दौड़ रहे हैं शिथिल प्राण
फिर भी आशा शून्य तक
पर शून्य से थोड़ा पहले
कहीं स्मृति-विस्मृति के बीच
संबोधन -असम्बोधन से परे
कहीं फैलती एक
अनगुंज गीत
सम्मोहित करती
लिए चलती उस पार
मन के पार ...
धरा के बंधनों को
करती तार-तार
विवशता के इन बन्धनों को
तोड़ती कोई अहसास
उसी शून्य से पहले
लिए मिलन की आस
प्रिय ! ये तुम हो या
तेरा अहसास.