मेरे सावन में तुम
भावों की बदली बन कर
रुक-रुक , रह-रह कौंधती
तड़ित सी चीरती-फारती
सुन्न करती वेदना को
फिर आँखों से बरसती
बूंद-बूंद बहती दरिया सी
प्रवाह कभी मंद,कभी तीव्र
किसी अज्ञात महाकर्षण की ओर
अज्ञात किन्तु सतत
बोध कुछ और होने का
भीतर की पुकार
गर्म ज्वाला सी फूटती
फैलता लावा
वह होने में
फिर अपूर्णता का बोध
करता बारम्बार विस्फोट
मेरे होने की ज्वालामुखी
वह सिर्फ तुम..सिर्फ तुम.